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कविता

कुत्ते

राजेंद्र प्रसाद पांडेय


आदमीयत के साथ आदमी की
कितनी बड़ी मसखरी है कि
उसे कुत्ता अखरा न उसकी दुम
सिर्फ कुत्ते की दुम की टेढ़ाई अखरी है
मगर मुझे वही कुत्ता प्यारा है
जो अपनी गर्दन मोड़ कर
अपने घावों को खुद चाट ले
और ऊपर ढेला फेंकने वाले को
दस कदम आगे बढ़ने के पहले
दौड़ा कर काट ले

मालिकों के आगे टकटकी बाँध कर
दुम हिलाते कुत्ते मुझे माफ करें
उन्हें चाहिए कि वे अपने लिए सही जमीन तलाशें
और उसे तोड़ने के पहले कचरा नहीं
अपनी दुम साफ करें

वे सब कुत्ते दोगले हैं
जो गर्दनें
मोटे पट्टों और कीमती जंजीरों को सौंप कर उन्हें प्यारे हैं
असलियत उनमें है
जो अपनी टाँगों के बूते
अपनी दिशा खोजते हैं
और पालिका की दृष्टि में
लावारिश हैं, आवारे हैं

भीड़ों में तो अक्सर अनेकानेक रंग-बिरंगे कुत्ते दीखते हैं
माइकों पर भी प्रायः ''हिज़ मास्टर्स वायस'' के
कुत्ते भूँकते हैं

आओ हम कुत्तों से लड़ें
जब तक कुत्तों द्वारा आदमी को काट देना बंद न हो
और तब तक हाइड्रोफोबिया में भूँकें जब तक
आदमी को आदमी का जन्म पाने के लिए
वल्दियत बदल कर कुत्तापा ओढ़ना नापसंद न हो

 


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